कला / संस्कृति

नवसंवत्सर: साधना संकल्प और सृष्टि से समन्वय का दिन

रमेश शर्मा

2 अप्रैल, नवसंवत्सर का दिन, अर्थात नये संवत् वर्ष का प्रथम दिन है। 2 अप्रैल से विक्रम संवत् 2079 और युगाब्द 5125 आरम्भ हो रहा है। इस संवत्सर का नाम नल होगा। और राजा शनि देव होंगे। मंत्री का दायित्व गुरुदेव बृहस्पति के पास रहेगा।

भारत में कोई तिथि, त्योहार, परम्परा, उत्सव और उसका शब्द संबोधन यूं ही नहीं होता। इसके पीछे सैकड़ो वर्षों का शोध, अनुसंधान का निष्कर्ष होता है, जिसमें प्रकृति से तादात्म्य निहित होता है। यह विशेषता इस नव संवत्सर तिथि की भी है। शब्द “नवसंवत्सर” संस्कृत की दो धातुओं से बनता है। एक सम् और दूसरी वत्। पहली धातु सम्। इसमें स सृष्टि का प्रतीक है। इसीलिये सृष्टि, संसार, संहार जैसे शब्द इससे बनते हैं। और म् सृष्टि के रहस्य का प्रतीक है। इसीलिये परम् ब्रह्म इन दोनों शब्दों को पूर्णता म् से मिलती है, तो मां का आरम्भ भी म् से होता है। अब इन दोनों धातुओं को मिला कर शब्द बना संवत्। इसमें नव शब्द उपसर्ग के रूप में लगता है। तब शब्द बनता है नवसंवत्सर, अर्थात एक ऐसी तिथि, ऐसा समय, ऐसा पल जब हम सृष्टि के रहस्यों के अनुरूप नव सृजन के विस्तार की ओर अग्रसर होते हैं। भारत में काल गणना का इतिहास कितना पुराना है, यह कहा नहीं जा सकता। संभव है यह लाखों वर्ष पुराना हो। पांच हजार वर्ष से तो यह व्यवस्थित और पूर्णतया वैज्ञानिक है। इस काल गणना का उल्लेख ऋग्वेद में भी है और श्रीमद्भागवत में भी। भारतीय नववर्ष की तिथि चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा होती है। यही प्रतिपदा नवसंवत्सर आरम्भ होने की तिथि है। इस तिथि निर्धारण के निमित्त चार प्रमुख कारण माने गये। सबसे पहला यह कि इसी तिथि को सृष्टि रचना आरम्भ हुई और यही समय के आरम्भ होने की तिथि है। काल गणना इसी तिथि से आरम्भ होती है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण, यह तिथि द्वापर के समापन और कलियुग के आरम्भ की तिथि है।

कलियुग के आरम्भ से युगाब्द गणना आरम्भ हुई। इसी तिथि को भारत के उत्तर और मध्य भाग से शकों को पराजित करने वाले सम्राट विक्रमादित्य का राज्यारोहण हुआ। सम्राट विक्रमादित्य ने इस तिथि के आने की प्रतीक्षा की और मुहूर्त बना कर इस तिथि पर सिंहासन संभाला। इससे विक्रम संवत् आरम्भ हुआ। एक आश्चर्यजनक बात यह है कि युगाब्द और विक्रम संवत् की काल गणना इतनी सटीक है कि आधुनिक विज्ञान भी हत्प्रभ है। अर्थात् पांच हजार वर्ष पूर्व आरम्भ हुई युगाब्द गणना आधुनिक विज्ञान के निष्कर्ष से भी सटीक है। युगाब्द और विक्रम संवत में ऐसा नहीं है कि शोध बाद में हुआ हो और नये शोध के अनुसार गणना करके पूर्व तिथि से लागू कर दिया हो, जैसा ईस्वी संवत् में होता है। ईस्वी संवत् मुश्किल से साढ़े चार सौ साल पहले आरम्भ हुआ, लेकिन ईसा मसीह के जीवनकाल की अनुमानित गणनाएं करके लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व की तिथि से लागू किया गया। ऐसा भारतीय काल गणना में नहीं है। यहां संवत् युगाब्द का हो या विक्रम संवत् का, दोनों में महीने या दिन की गणना ही नहीं, घंटे मिनट की गति गणना भी पहले दिन से है। किसी में कोई संशोधन नहीं हुआ, कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यहां तक कि नक्षत्रों की संख्या, उनके नाम में भी यथावत हैं। भारत की काल गणना कभी कितनी सटीक और शोधपरक थी कि यहां समय की गति और उसके अनुसार ऋतु परिवर्तन पत्थरों पर उकेर दिये गये थे। इसके अवशेष जंतर मंतर के रूप में आज भी दिल्ली, जयपुर और उज्जैन सहित अनेक नगरों में खंडहर के रूप में मौजूद हैं।

भारत की कालगणना इसलिये अपेक्षाकृत अधिक सटीक है कि इसके आकलन का आधार कोई एक ही शोध नहीं है, अपितु व्यापक है। यह सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी की गति के आकलन के आधार पर है। यही नहीं, गणना के निहितार्थ में अन्य ग्रहों की गति का भी आकलन किया गया है। यह भारतीय मानस के लिये गर्व का विषय है कि युरोप वासियों का जब भारत आना जाना हुआ, तब उन्होनें अपने कैलेण्डर में भारतीय प्रावधानों के अनुरुप संशोधन किये। उदाहरण के लिए, पृथ्वी लगभग 1600 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से घूमती है उसे एक पूरा चक्कर लगाने में चौबीस घंटे लगते हैं। इसे “अहोरात्र” कहते हैं। इसके एक भाग को जो एक घंटे का होता है, पंचाग की भाषा में “होरा” कहते हैं। होरा को यदि रोमन में लिखेंगे “HOUR” स्पेलिंग बनेगी, इसी को अंग्रेजी में ऑवर कहा गया। यूरोप में यह संबोधन एक घंटे के लिये है। उन्होंने उच्चारण थोड़ा बदल लिया है, इसलिये हमारा ध्यान एक दम नहीं जाता। इसी प्रकार पहले उनके कैलेण्डर में केवल दस माह होते थे। दिनों की संख्या भी नियमित नहीं थी। जब भारत आना-जाना हुआ, इस आधार पर ही उन्होंने कैलेण्डर को बारह मासी बनाया, जो इस संशोधन की तिथियों से स्पष्ट है। पांच हजार वर्ष पूर्व भी भारतवासी पृथ्वी और सूर्य की गति की गणना करना जानते थे। इसीलिये युगाब्द गणना में भी आज एक सेकण्ड का भी अंतर नहीं आता।

पृथ्वी अपनी परिक्रमा 27 दिन और तीन घंटे में पूरी करती है। इसलिये इस अवधि को एक माह की पूर्णता माना गया। लेकिन वर्ष पूर्णता केवल पृथ्वी की गति की पूर्णता से नहीं होती, अपितु इसमें अन्य ग्रहों की सक्रियता और गति भी समाहित रहती है, इसलिये वर्ष में 365 दिनों से थोड़ा अधिक समय लगता है। यह समय 365 दिन 15 घड़ी और 30 विपल लगते हैं। इस अतिरिक्त समय के समायोजन के लिये कभी अधिक मास और कभी दो दिन की तिथियों का प्रावधान किया गया है। भारतीय अनुसंधानकर्ता भी इस अतिरिक्त समय का निर्धारण किसी विशेष माह में कर सकते थे, जैसा यूरोपियन कैलेण्डर में किया गया है। किंतु भारत में यह निर्धारण अन्य ग्रहों की गति, जो नक्षत्र को प्रभावित करती है, उसके अनुरूप ही अलग-अलग समय पर समायोजन का प्रावधान करके पंचांग बनाया गया। सबसे अधिक प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेण्डर में केवल दो ही बातों का ज्ञान मिलता है। एक दिनांक और दूसरा वार, जबकि भारतीय युगाब्ध और विक्रम संवत के पंचांग में पांच बातों की गणना की जाती है।

जैसाकि नाम से ही स्पष्ट हो रहा है, पंचांग अर्थात पांच अंग। इसमें तिथि, वार, नक्षत्र, कर्ण और योग इन पांच सूचकों के साथ पंचांग तैयार होता है। माह के नाम भी नक्षत्र के नाम के आधार पर होते हैं। जैसे चैत्र मास का आरम्भ चित्रा नक्षत्र के आरम्भ से होता है, इसीलिए चित्रा नक्षत्र के आधार पर मास का नाम भी चैत्र है। विशाखा नक्षत्र से वैशाख माह, ज्येष्ठा नक्षत्र के नाम से ज्येष्ठ माह। इसी प्रकार सभी बारह माहों के नाम और उनके आरम्भ से ही माह का आरम्भ होता है। माह की अवधि भी नक्षत्र की कालावधि से निर्धारित होती है। इसलिये इसमें त्रुटि की गुंजाइश नगण्य होती है।

जिस प्रकार भारतीय काल गणना में शोध और अनुसंधान की पूर्णता है, नामकरण का भी सिद्धांत है, उसी प्रकार इसके आयोजन या आज की भाषा में कहें तो इसे मनाने का भी एक सिद्धांत है। भारतीय नवसंवत्सर दिवस एक वर्ष की पूर्णता और नये वर्ष का आरम्भ दिवस तो है ही, इसके साथ यह प्राणी के प्रकृति से एकाकारिता का दिवस भी है। यह ऋतु, ग्रह नक्षत्र, योग और कर्ण के परिवर्तन से प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों से स्वयं के तादात्म्य बिठाने और उनके अनुरूप स्वयं को उन्नत बनाने का दिन भी होता है। इसलिये नवसंवत्सर के दिन केवल नव वर्ष मनाने, नाचने-गाने या उपद्रव मचाने की बात नहीं होती। यह संकल्प लेने का दिन है। साधना करने का दिन है। प्रगति के लिये स्वयं को सक्षम बनाने के लिए स्वयं को योग्य बनाना आवश्यक होता है। योग्यता के लिये साधना और लक्ष्य प्राप्ति के लिये संकल्प आवश्यक होता है। इसीलिये संकल्प और साधना के लिये नवरात्रि का प्रावधान किया गया। इस दिन चैत्र नवरात्रि का आरम्भ होता है। नवरात्रि प्रकृतिस्थ होने के दिन है, कायाकल्प करने के दिन हैं। पहले दिन नवरात्रि पूजन या नवरात्रि घट स्थापना से पूर्व प्रातः सूर्योदय से पूर्व जागकर विशेष स्नान पूजन के साथ आयु को समृद्धि देने वाली औषधि का पान करने विधान है। इस दिन पवित्र बहते जल में या बहते हुये जल से युक्त सरोवर में स्नान करना होता है। स्नान केवल जल से नहीं, अपितु पहले तैलीय स्नान अर्थात पूरे शरीर की तेल से मालिश, फिर जल स्नान। नीम की पत्ती को बारीक पीसकर काली मिर्च के साथ सेवन करने का विधान है। फिर गुड़ी का पूजन। इतना करके घट स्थापना और नवरात्रि पूजन आरम्भ करने का विधान है।

भारतीय काल गणना में अनेक आकलन हैं। कल्प, युग, वर्ष, माह, सप्ताह दिवस आदि के साथ ऋतु आकलन भी है। एक ऋतु औसतन दो माह की होती है। वर्ष को कुल छह ऋतुओं में विभाजित किया गया है। चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा बसंत ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का संधिकाल है। ऋतु परिवर्तन पूरी प्रकृति पर प्रभाव डालता है। बसंत ऋतु में यदि नव कोपलों का उत्सर्जन होता है, तो ग्रीष्म में वे विस्तार लेती हैं। ऋतु का यह परिवर्तन मनुष्य के मानस पर भी प्रभाव डालता है। इस प्रभाव के सकारात्मक लाभ लेने और अपने तन, मन, मानस को उसके अनुरूप बनाने के लिये ही नवरात्रि साधना का प्रावधान किया गया है।

आज भारत ने अपने विकास के आयाम की दिशा में एक करवट ली है। बीच में बीते लगभग एक हजार वर्ष के कालखंड को छोड़ दें तो संसार ने सदैव भारत से सीखा है। शोध और अनुसंधानकर्ताओं ने सदैव भारत की धारणाओं को स्वीकारा और आश्चर्य व्यक्त किया। ऐसा आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक “हम भारत से क्या सीखें” में स्पष्ट लिखा कि ज्ञान भारत से बेबीलोनिया में गया, बेबीलोनिया से ईरान और ईरान से यूरोप में। इसी सदी के वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने अपनी भारत यात्रा के समय दिल्ली में आयोजित उद्बोधन में समय के आकलन पर भारत के प्राचीन ज्ञान पर आश्चर्य व्यक्त किया था। उनकी पुस्तक “समय का इतिहास” में जो काल गणना है, वह प्राचीन भारतीय ज्ञान से पूरा मेल खाता है। निस्संदेह यह विवरण जहां भारतीय जनमानस को गौरव की अनुभूति देती है, वहीं इस बात के लिये सावधान भी करती है कि हम वाह्य प्रचार से भ्रमित न हों, स्वयं को सक्षम बनायें। आज पुनः पूरा संसार भारत की ओर देख रहा है। दुनिया ने भारत से योग ही नहीं अपनाया, अपितु ताजा कोरोना काल में भारतीयों की प्रतिरोधक क्षमता पर भी आश्चर्य व्यक्त किया है। इसपर भी शोध हो रहे हैं। अतएव यह प्रत्येक भारतीय का संकल्प होना चाहिए कि हम अपनी गौरवशाली परम्पराओं के अनुरूप अपना जीवन वृत बनायें। यह मार्ग स्वयं को सक्षम बनाने का है और यही विश्व में भारत की साख बनाने का।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और भोपाल में रहते हैं)

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