साहित्य / सिनेमा

पियरे फिलमान का सिनेमा

अजित राय

हाल ही में संपन्न सातवें राजस्थान अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (जयपुर- जोधपुर) की ओपनिंग फिल्म “लॉन्ग टाइम नो सी” फ्रेंच सिनेमा में स्वतंत्र फिल्म निर्माण का नायाब नमूना है। युवा निर्देशक पियरे फिलमान की यह फिल्म भारत के 51वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के साथ साथ अभी तक दुनिया के करीब 22 फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी है और काफी शोहरत बटोर चुकी है। वे इस समय भारत देश से बेइंतहा इश्क में है और यहीं पर को-प्रोडक्शन में दो फिल्में बनाने की तैयारी में है। वे सिनेमा के चलते फिरते विश्व कोश हैं और खुद को फ्रेंच सिनेमा की महान परंपरा में अगली कड़ी के रूप में देखते हैं।

पियरे फिलमान को वैश्विक प्रसिद्धि तब मिली थी, जब 69वें कान फिल्म समारोह (2016) के कान क्लासिक खंड में सुप्रसिद्ध अमेरिकी सिनेमैटोग्राफर विलमोस जिगमोंड (16 जून 1930- 1 जनवरी 2016) के जीवन और कला पर उनकी फीचर फिल्मनुमा डाक्यूमेंट्री “क्लोज एनकाउंटर्स विद विलमोस जिगमोंड” दिखाई गई थी। यह फिल्म सिनेमैटोग्राफी में किंवदंती बन चुके 83 वर्षीय विलमोस जिगमोंड और युवा फ्रेंच फिल्मकार पियरे फिलमान की अद्भुत मुलाकात के जरिए सत्तर के दशक के अमेरिकी सिनेमा में रौशनी और छायाओं के नायाब खेल को सामने लाती है। जब इस फिल्म का पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा था, तभी 86 साल की उम्र में विलमोस जिगमोंड का निधन हो गया। हंगरी में जन्मे विलमोस जिगमोंड 1958 में शरणार्थी के रूप में चोरी छिपे पहले ऑस्ट्रिया और फिर अमेरिका आ गए थे। हालीवुड में स्टीवन स्पीलबर्ग, वुडी एलन आदि दर्जनों मशहूर फिल्मकारों के साथ काम करने के बाद उनका करियर जब बुलंदी पर पहुंचा, तो उन्होंने खुद को अमेरिकी न्यूवेव फिल्म आंदोलन को समर्पित कर दिया। पियरे फिलमान की फिल्म में यह देखना खासा दिलचस्प है कि सिनेमा में किंवदंती बन जाने वाला यह विरल छायाकार, जो हमेशा कैमरे के पीछे रहा, वह लेंस के सामने कैसे व्यवहार करता है। बुडापेस्ट की कठिन गलियों से लास एंजेलिस तक की यात्रा उनके और उनके मित्रों के जरिए कही गई है, जिनमें फिल्म निर्देशक, अभिनेता और सिनेमैटोग्राफर शामिल हैं।

पियरे फिलमान की नई फ्रेंच फिल्म “लांग टाइम नो सी” (बहुत दिनों से देखा नहीं) एक प्रेम कहानी है, जिसके फ्रेंच नाम का मतलब है “दो ट्रेनों के बीच।” दक्षिण पूर्व पेरिस के आउस्टेर्लित्ज रेलवे स्टेशन पर नौ साल बाद एक प्रेमी युगल अचानक मिल जाता है। यह वही रेलवे स्टेशन है, जहां एग्निएस वार्दा की मशहूर फिल्म “क्लियो 5 टू 7” (1967) की शूटिंग हुई थी। इस फिल्म को देखते हुए गुलजार की हिंदी फिल्म “इजाजत” की याद आ सकती है, पर दोनों फिल्मों का संदर्भ एकदम अलग है। पुरूष (ग्रेगुआ) वायलिन वादक है, जो एक संगीत समारोह में भाग लेने पेरिस से आ रहा है और स्त्री (मारियों) अपने किसी काम से आई है, जिसे अपने शहर विएर्जोन जाना है। जब वे रेलवे स्टेशन पर अचानक मिलते हैं, उसके ठीक एक घंटे पंद्रह मिनट बाद मारियों की ट्रेन है। उनके पास अपने बीत चुके प्रेम को फिर से जीने के लिए केवल सवा घंटा है। फिल्म की अवधि भी सवा घंटा है। दोनों साथ साथ चलते हुए और बातें करते हुए एक लंबी दूरी तय करते हैं। उनकी बातों से धीरे धीरे अतीत के पन्ने खुलते जाते हैं और हमारे सामने एक दिलचस्प प्रेम कथा की छवियां उभरती है। फिल्म में कोई फ्लैश बैक नहीं है और क्लोज अप शॉट्स भी बहुत कम हैं। प्रॉपर्टी, सेट्स और दूसरी चीजों का भी बहुत कम इस्तेमाल किया गया है। कैमरा लंबे लंबे शॉट्स में दो प्रेमियों का पीछा करता है, जो दुनिया से बेखबर नौ साल पहले खत्म हो चुके अपने प्रेम को दोबारा जीने की कोशिश कर रहे हैं।

‌ग्रेगुआ और मारियों दोनों एक-दूसरे को अचानक देखकर खुशी से उछल उछल पड़ते हैं। नौ साल पहले वे ऐसे ही अचानक एक अस्पताल के बरामदे में टकरा गए थे। दोनों में परिचय हुआ, जो आगे गहरे प्रेम में बदल गया। दोनों अपने अपने जीवनसाथी की सेवा में अस्पताल में थे। फिर उन्हें अलग होना पड़ा था। अब दोनों के पास गुजरे हुए प्रेम की गहरी यादें हैं। वे रेलवे स्टेशन के बाहर की गलियों से गुजरते हुए पहले कंकालों, हड्डियों और खोपड़ियों के म्यूजियम में जाते हैं और फिर चिड़ियाघर और बोटानिकल गार्डन से होते हुए रेलवे स्टेशन लौट आते हैं। उनके पास समय बहुत ही कम है, जो हर क्षण और कम होता जा रहा है। इस यात्रा में मानो वे पिछले नौ सालों के छूटे हुए साहचर्य को जी लेना चाहते हैं। ग्रेगुआ एकांत के लिए होटल का कमरा बुक करता है। मारियों वस्त्र उतारकर समर्पित होना चाहती है, लेकिन ग्रेगुआ अचानक रूक जाता है और बाहर निकल आता है। मिलने और संग साथ की तमाम इच्छाओं के बावजूद मारियों को अपने शहर लौटना है, जहां उसका पति कोमा में जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष कर रहा है।

फिल्म का आखिरी पंद्रह मिनट तो सचमुच विस्मयकारी है, जब ट्रेन छूटने के डर से वे स्टेशन की ओर भागते है। प्लेटफॉर्म पर पहुंचने पर पता चलता है कि ट्रेन के थोड़े लेट होने से उनके पास आखिरी कुछ मिनट और है। वहां एक यात्री पियानो बजा रहा है। ग्रेगुआ भी उसके साथ अपना वायलिन बजाने लगता है। संगीत का सम्मोहन इतना है कि कैशियर गर्ल तक टिकट काउंटर से बाहर निकल कर आ जाती है। ग्रेगुआ और मारियों प्लेटफार्म पर आते हैं। मारियो ट्रेन में चढ़ने लगती है, तो पता चलता है कि हड़बड़ी में वह अपना टिकट पंच करना भूल गई है। ग्रेगुआ उसका टिकट लेकर पंचिंग मशीन की ओर भागता है। इससे पहले कि वह उसे टिकट वापस दे सके, ट्रेन का स्वचलित दरवाजा बंद हो जाता है और ट्रेन चल देती है।

(लेखक कला, साहित्य, रंगकर्म लेखन के क्षेत्र में सुपरिचित नाम हैं)

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