खासम-ख़ास

जब मोरारजी ने मानी थी राम नाईक की बात

जय प्रकाश नारायण को दो बार सत्ता के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा। पहली बार उनकी लड़ाई ब्रिटिश सत्ता से थी। इसके लिए उन्होंने यातनाएं सहीं, लेकिन कदम पीछे नहीं खींचे। दूसरी बार स्वंत्रत भारत में व्यवस्था परिवर्तन के लिए उन्होंने सत्ता से मोर्चा लिया।

1974 में बिहार से शुरू हुई उनकी संपूर्ण क्रांति देश के अन्य हिस्सों में फैली थी। जब तक सत्ता में भ्रष्ट तत्व रहेंगे, तब तक जय प्रकाश प्रासंगिक रहेंगे। 

ग्यारह अक्टूबर को उनकी जयंती व्यवस्था के प्रति सजग रहने का अवसर होती है। उनके विचारों से प्रेरणा लेनी चाहिए। यह संतोष का विषय है कि जयप्रकाश के साथ काम कर चुके अनेक लोग आज हमारे बीच में हैं। ये बात अलग है कि कुछ सत्ता में पहुंच कर बिल्कुल वैसे ही हो गए, जिनके खिलाफ जेपी ने संघर्ष किया था। इन्होंने कोई फर्क नहीं छोड़ा। 

वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने व्यवस्था को लोकहित का माध्यम बनाए रखने में विश्वास किया। वस्तुत: ऐसे ही लोग जेपी की जयंती पर मार्गदर्शन करने के वास्तिविक अधिकारी होते हैं। कहने को तो उनके चेलों की कमी नहीं है। 

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में जेपी जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह को राज्यपाल राम नाईक ने संबोधित किया। वह जेपी के साथ काम कर चुके हैं। वह सत्ता को व्यवस्था परिवर्तन का माध्यम सदैव मानते रहे हैं, उसी पर आचरण करते रहे हैं। सक्रिय राजनीति में वह केंद्र में मंत्री थे, सभी जगह अपनी जिम्मेदारियों को निष्ठापूर्वक निर्वाह किया। ऐसे में जेपी पर उनका कुछ भी बोलना प्रेरणादायी लगता है।

राम नाईक ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल पद की संवैधानिक सीमाओं का खुद ही उल्लेख किया और कहा कि वह राजनीतिक संदर्भो की कोई बात नहीं कर सकते। फिर जेपी से संबंधित उन्होंने बड़ी सार्थक बातें रखीं। राम नाईक का भाषण संवाद-शैली में होता है। सीधा, सरल जैसे वह सामने बैठे लोगों से बात कर रहे हों। गंभीर निहितार्थ वाली बातों को भी बड़ी सहजता से रखते हैं। 

जेपी जयंती पर दिए गए उनके भाषण को तीन हिस्सों में बांटा और समझा जा सकता है। तीनों के केंद्र जयप्रकाश नारायण थे। इसके अलावा भाषण का जो निष्किर्ष निकला, वह भी जयप्रकाश के विचारों से आज की पीढ़ी को प्रेरित करने वाला था। पहले हिस्से में उन्होंने प्रदेश के बेसिक शिक्षा मंत्री रामगोविंद चौधरी की मांग का माकूल जवाब दिया। दूसरे और तीसरे हिस्से में जेपी से जुड़े प्रसंगों का उल्लेख किया। 

समारोह में रामगोविंद चौधरी ने सांसद और विधायक निधि समाप्त करने की मांग रखी थी। उनका कहना था कि इसमें सिर्फ भ्रष्टाचार होता है।

उल्लेखनीय है कि सांसद निधि शुरू करने का पहल सुझाव राम नाईक ने ही दिया था। इसके पीछे सोच यह थी कि सांसदों को अपने क्षेत्र के बारे में पर्याप्त जानकारी होती है। वहां आवश्यकताओं या समस्याओं को समझते हैं। इसके लिए कुछ धनराशि ऐसी होनी चाहिए, जिससे वह उचित स्थान पर खर्च कर सके। यदि भ्रष्टाचार है तो उसे रोकने का दायित्व भी सरकार पर है। 

राज्यपाल ने कहा कि यदि सरकार भ्रष्टाचार करे तो क्या इस मशीनरी को हटाया जा सकता है? इस सवाल को उन्होंने जेपी के विचारों से जोड़ा। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए जनता को भी जागरूक होना पड़ेगा। जयप्रकाश ऐसा ही जनतंत्र चाहते थे, जिसमें आमजन की सतत-चौकसी और भागीदारी हो।

राम नाईक ने जेपी से जुड़े अपने दो प्रसंगों का उल्लेख किया। इन दोनों से जयप्रकाश के चिंतन को समझा जा सकता है। इनमें से एक जनता पार्टी के लिए गठन के पहले का और दूसरा उसके बाद का है। जनता पार्टी बनने से पहले जनसंघ अलग था। रामनाईक उस समय मुंबई जनसंघ के संगठन मंत्री थे। 

जयप्रकाश का आंदोलन बिहार में शुरू हो चुका था, और वह मुंबई दौरे पर आए थे। यहां उन्होंने गैर कांग्रेस दलों को एक मंच पर लाने की जिम्मेदारी राम नाईक को सौंपी थी। जेपी की जनसभा का दायित्व भी नाईक पर था। इस प्रसंग का एक मतलब था कि व्यवस्था परिवर्तन मंे दलगत सीमाएं बाधक नहीं होनी चाहिए।

जयप्रकाश को जनसंघ में तब एक कमी नजर आई थी, जिसका जिक्र उन्होंने मुंबई में किया। कहा कि जनसंघ भूमि सुधार का पक्षधर नहीं है। यह बात राम नाईक के सामने कही गई। जेपी का कहना था कि राजस्थान से पहली बार विजयी हुए छह विधायकों ने भूमि सुधार का विरोध किया था। 

बाद में राम नाईक ने स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने बताया कि छह विधायकों वाली बात सही है, लेकिन भूमि सुधार का विरोध करने वाले इन सभी छह विधायकों को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने पार्टी से निकाल दिया था। तब राजस्थान में जनसंघ का मात्र एक विधायक बचा था। बाद में जेपी ने भी स्वीकार किया कि उनको इस बात की जानकारी नहीं थी। फिर क्या था, जेपी ने अपनी संपूर्ण क्रांति में जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का खुलकर सहयोग लिया।

राम नाईक ने दूसरा प्रसंग जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बनने के बाद बताया। इस प्रसंग मंे भी जेपी का विचार निहित है। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई मुंबई आए थे। यहां उनके तीन कार्यक्रम थे। पहला, जयप्रकाश नारायण को जसलोक अस्पताल में देखने जाना, दूसरा राजभवन में बैठक और तीसरा शिवाजी पार्क में जनसभा। 

राम नाईक मुंबई जनता पार्टी के अध्यक्ष और जनसभा के मुख्य आयोजक थे, लेकिन मोरारजी ने जसलोक जाने का कार्यक्रम स्थागित कर दिया था। वह अपने जिद्दी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे। लेकिन राम नाईक ने भी जिद पकड़ ली। उन्होंने कहा कि जसलोक नहीं तो जनसभा भी नहीं। 

बाद में मोरारजी ने राम नाईक की बात मानी। इस प्रसंग का संदेश यह है कि प्रजातंत्र में पार्टी सरकार से बड़ी होती है। यही जेपी चाहते थे। 

डॉ दिलीप अग्निहोत्री

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button