कला / संस्कृति

न मंत्र, न पुरोहित, ना ही पाखंडः सौर उपासकों का मुख्य पर्व है छठ

सनातन के शाक्त, शैव, गाणपत्य, वैष्णव तथा सौर नामक पांच पन्थोपासकों में से सौर यानी सूर्य के उपासकों में शुद्धता की पराकाष्ठा है और छठ उसका महापर्व है। भारत के विभिन्न हिस्सों में सूर्य के उपासकों के बावजूद, पूर्वाचंल में इनकी बहुतायत है और बिहार इसका प्रमुख गढ़ है। सूर्य का अनुकरणीय उपासक महाभारत का पात्र कर्ण का राज केंद्र अंग क्षेत्र वर्तमान बिहार से ही सम्बद्ध था, संभवतः यह एक बड़ा कारण है कि बिहार में छठ की पराकष्ठा है।

छठ पर्व अपने आप में अनूठा पर्व है। होली, दशहरा, दिवाली, दुर्गापुजा या सनातन का कोई अन्य पर्व हो, सभी रूढ़ियों और परम्परा द्वारा संचालित होते हैं, जबकि छठ में रूढ़ि और परम्परा के साथ प्रचलन का भी समावेश है। छठ पर्व सरीखा सनातन में कोई अन्य पर्व नहीं है, जो हर पर्व के साथ समाज के नये प्रचलन को समाहित करता हो। रूढ़ि, प्रचलन और परम्परा का समागम होने की वजह से यह सनातन के नयेपन का वाहक है। यह पर्व सनातन के आज के स्वरूप का सबसे बड़ा पर्व है, जिसमें दान-कुदान, वर्ण-जाति, मन्त्र-जाप, विधि-अनुष्ठान, विवाद-विवेचना का भेद नहीं है। न इसमें पुरोहित से आहूत कराने की विधि है, न ही इसमें इसमें पाखंड है। यह पर्व शुद्ध है, शुद्धता की पराकाष्ठा है। यह गहरा ध्यान है, यह ऊंची तपस्या है। इसमें मानवता है, सामाजिकता है, सहभागिता है। इसमें व्यक्तिगत आकांक्षा के साथ ही प्रकृति का कण-कण सिंदूरी हो उठे, इसकी कामना है। यही कारण है कि सौर के उपासक जब रूढ़ि, प्रचलन और परम्परा की दऊरा में अपनी संस्कृति, सभ्यता और आज के दौर को सर पर उठाने हेतु आबद्ध होकर पूरी सादगी और स्वच्छता के साथ खड़ा हो जाता है, तब छठ हो होता है।

उल्लेखनीय है कि चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में व्रतियों को जितनी जतन के साथ पूरे विधान को पूरा करना होता है, उस लिहाज से यह संसार के सबसे कठिन पर्वों में से भी एक है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में व्रतियों को तीन दिनों तक उपवास रखकर सूर्य की आराधना करनी होती है और इनकी आराधना में न तो किसी वैदिक, न दैवीय, न ही किसी अन्य मंत्रों का उच्चारण होता है, जबकि अपने ईष्ट देव से व्रतियों का सीधा संवाद अपने लोक गीत में होता है। असल में, छठ पर्व का लोक-मर्म इसके लोकगीतों में ही छिपा हुआ है। यह लोक-मर्म ही लोक-विवेक रचता है और प्रतिकूल स्थितियों में भी जीवन जीने का हठ सौंपता है। इन लोकगीतों को आप छठ व्रतियों का मन्त्र भी कह सकते हैं, जिससे शक्ति का संचार होता है तथा इसी से पूरे व्रत के दौरान व्रती उर्जावान बने रहते हैं। उत्साहित करने वाली बात यह कि इन लोकगीतों की रचना किसी ऋषि, मुनि या देव तुल्य जन द्वारा नहीं, अपितु स्थानीय लोक गायकों द्वारा रचित होता है तथा हर छठ व्रत के साथ इन लोकगीतों या जिसे आप छठ मंत्र भी कह सकते हैं, की संख्या बढ़ जाती है। यहां कुछ मन्त्र एक पर्व तक ही चलते हैं तो कुछ कालजयी हो जाते हैं। विंध्यवासिनी देवी, शारदा सिन्हा, अनुराधा पौडवाल ने जो छठ गीत गाए हैं, वह वर्षों से लोगों की जुबान पर हैं, तो वहीं पवन सिंह, कल्पना व मैथिली ठाकुर के कर्णप्रिय नये गीत भी छठ के दौरान प्रचिलत हो चले हैं। विशेष बात यह कि छठ पर्व के गीतों में व्रतियों द्वारा राग देते समय वक्त किसी विशेष वाद्य-यंत्र का प्रयोग नहीं होता है, बावजूद इसके महिलाओं के सामूहिक स्वर की एकरसता जो भाव पैदा करती है, वैसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता है।

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वस्तुतः छठ का पूरा दर्शन इन्ही लोकगीतों में है। बिहार के सभी बोलियों में छठ गीत गाने की परंपरा है। भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका आदि जन भाषाओं के छठ गीतों में बिहार का हर पक्ष मुखरित होता है। छठ के लोकगीतों में सामाजिक ताने-बाने का वृहत् स्वरूप देखने को मिलता है। छठ गीतों में भी कई कथाओं के माध्यम से जीवन का हर पक्ष अभिव्यक्त होता है। इन लोकगीतों में जीवन के सुखी पक्ष भी हैं, तो दुःख की व्यथा भी; संवेदना है, तो कामना भी; अगर श्याम पक्ष है, तो श्वेत भी। छठ के लोकगीतों में जीवन के तमाम पक्षों की अनगिनत छायाएं साथ-साथ चलती हैं, जो वैचारिक दृष्टिकोण से विलक्षण सौंदर्य-संस्कृति से परिचय करवाता है। ग्रामीण भारतीय समाज में प्रायः हर लोक पर्व में बेटे की कामना की जाती है, लेकिन छठ के एक गीत में बेटी की भी कामना है। यह एकमात्र पर्व है, जिसमें प्रकृति के कण-कण को स्थान प्राप्त होता है।

(लेखक आई..पी.एफ. फाउंडेशन के निदेशक हैं)

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