कला/संस्कृति/साहित्य

दिल्ली रंगमंच पर खिले नृत्य-संगीत के राग

कृपाशंकर

देश में संगीत नाटक, ऐतिहासिक नाटक बहुत कम खेले गए हैं। रंगमंच की अपनी सीमाएं और उसका अपना एक अलग चरित्र है। यह हर निर्देशक जानता और पहचानता है। लिहाज़ा, इस तरह के नाटक को वह खेल पाने का जोख़िम नहीं उठा पाता। बावजूद इसके, कुछ नाटक खेले तो गए हैं। सफल भी हुए हैं। ‘मुगले आज़म’ एक नाटक ही था, जो बरसों से कोलकाता रंगमंच पर खेला जाता रहा और जब उस पर इसी नाम से के. आसिफ साहेब ने फिल्म बनाई, तो उसकी बानगी अन्यत्र देखने को नहीं मिलती।

संजय उपाध्याय एक ऐसे निर्देशक रहे हैं, जो अपने नाटकों में संगीत संसाधन को प्रयोग में लाते रहे हैं और नाटकों को एक अलग ऊंचाई दी है। नाटक ‘विदेशिया’ में यह सब खासियत देखने को मिलती है। इससे अलग एक और नाटक ‘बैजु बाबरा’ सामने आया है, जिसकी चर्चा ज़रूरी है। नाटक को दो लोगों ने मिलकर लिखा है- विशाल सिंह और अरविंद सिंह। यह भी अच्छी बात है। आज का दौर प्रयोग का दौर है। अंग्रेज़ी लेखन में कई लोग मिलकर एक उपन्यास पूरा कर रहे हैं, जिन्हें कंपोजिट राइटिंग कहा जा रहा है। चलिए, हिंदी थियेटर में भी यह काम शुरू हो गया।

नाटक के निर्देशक अरविंद सिंह हैं। पहले उन्हें बधाई कि उन्होंने इस तरह की चुनौती को स्वीकार किया और दिल्ली रंगमंच पर ऐसे कठिन, पर साधन-संपन्न जगह पर उसका प्रदर्शन किया। यह नाटक इसी जनवरी में भी किया गया था और उसकी सफलता के बाद फिर इसी माह सितंबर में भी किया गया। बैनर ‘सुमुखा रंगमंडल’ है।

यह नृत्य-संगीत प्रधान नाटक है। दरअसल, कोई भी निर्देशक यहीं मात खाता रहा है। यह सब संसाधन कहां से लाएं? यह संयोग ही कहिए कि दिल्ली रंगमंच को एक बहुआयामी कलाकार शालू श्रीवास्तव के रूप में मिल गया है, जो एक इंटरनेशनल कथक नृत्यांगना और कथक गुरु हैं। स्कूल-कॉलेज के कालखंड में शालू श्रीवास्तव बेशक कई नाटकों के कई किरदारों में देखी-समझी गई हैं, पर नाटक ‘बैजु बाबरा’ में उनकी अदाकारी, भाव-भंगिमा और नृत्य ने मुकम्मल जान फूंक दिए हैं। इस साहस के लिए वे बधाई की पात्र हैं।

चलिए, अच्छा है कि दिल्ली रंगमंच पर भी गीत-नृत्य-संगीत के राग खिलने लगे हैं। खुशबू तो बिखरेगी ही…!

(लेखक साराजहां के एडिटर इन चीफ हैं)

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