खासम-ख़ास

‘आधार’ कब होगा दमदार?

एक ओर जहां आधार कार्ड जटिल कानूनों में उलझा हुआ है, वहीं निगरानी और निजता को लेकर इस पर विवाद शुरू हो गया है।

यह सच है कि आधार कार्ड बनाने की प्रक्रिया में अपनाई जाने वाली वैज्ञानिक तकनीक से देश की ज्यादातर आबादी बिल्कुल बेखबर है, लेकिन निजता पर हमला की आशंका के जवाब में सरकार का सुप्रीम कोर्ट में कोई ठोस तर्क न दे पाना इशारा करता है कि यह मामला जल्द सुलझने वाला नहीं है।

आधार कार्ड वह प्रामाणिक आधार बन सकता है, जिससे विभिन्न क्षेत्रों में दोहरा और फर्जी लाभ लेने वालों पर अंकुश लगे (कुछ क्षेत्रों में लगा भी है) और सरकारी खजाने पर सेंधमारी भी रुके। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यह निजता पर खतरा कैसे नहीं है? सरकार इसे स्पष्ट करे।

फिलहाल सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फायदा लेने के लिए आधार कार्ड वैकल्पिक रहेगा तथा इसका उपयोग केवल सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) व रसोई गैस वितरण के अलावा नहीं हो सकेगा। अब तक 90 करोड़ से ज्यादा भारतीयों का आधार कार्ड बन चुका है।

आधार कार्ड को निजता का हनन बताने वालों का तर्क है कि निजता, गोपनीय होती है। व्यक्तिगत-गोपनीय जानकारियां हासिल कर दूसरे इसका दुरुपयोग नहीं कर पाएं। साथ ही यह भी तर्क है कि भविष्य में आधार कार्ड प्रोजेक्ट किसी भी व्यक्ति की निजी प्रोफाइल जैसा ही होगा, जिसमें हर कुछ डाटा बेस के रूप में सहेजा हुआ होगा। मसलन उसने कब, कहां, कैसे यात्रा की, किस-किस से कब-कब रुपयों का लेन-देन किया यहां तक कि फोन काल डिटेल रिकॉर्ड भी। मतलब सारा कुछ रिकॉर्ड रख पाना आसान। इसी कारण याचिकाकर्ता इसे निजता और स्वतंत्रता का हनन मानते हैं।

सरकार भी चौतरफा घिरती नजर आ रही है, क्योंकि यह सच है कि सन् 2011 में महज एक आदेश पर शुरू इस योजना के लिए तब न तो कोई विधिक और न ही संवैधानिक प्रावधान किए गए थे। बाद में जो भी किया गया, एक तरह से आधा-अधूरा था क्योंकि तब भी इसके आंकड़ों के दुरुपयोग को रोकने और निजता के उल्लंघन से निपटने का ध्यान ही नहीं था। 

सुप्रीम कोर्ट में भी बहस के दौरान सरकार का तर्क यही था कि निजता का अधिकार मूल अधिकार नहीं है। संवैधानिक रूप से यह सच भी हो लेकिन क्या सूचना क्रांति के इस युग में यह भय और आने वाले खतरों का विषय नहीं? 

यह कहना भी ठीक नहीं कि भारत में लोगों के पास कोई पहचान-पत्र नहीं है। हकीकत यह कि बहुतों के पास एक से ज्यादा हैं। 1985 में देश के 10 राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘पब्लिक इवैल्यूएशन ऑफ एन्टाइटलमेंट प्रोग्राम’ के सर्वे से पता चला था कि 85.6 प्रतिशत लोगों के पास तब भी मतदाता पहचान-पत्र, राशन कार्ड या राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना कार्ड था। इसमें एक मजेदार तथ्य आया, लगभग 76 प्रतिशत लोगों के पास तीनो पहचान-पत्र थे। 

मतलब यह हुआ कि पहचान-पत्र के बावजूद लोग सरकारी योजनाओं से वंचित रह जाते हैं। इसका यह मतलब भी नहीं कि जिन गरीबों के पास आधार कार्ड है, सभी को अनिवार्य रूप से सब्सिडी वाला राशन और सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिल रही हो। वहीं ऐसे लोगों की भी खासी संख्या है जो बिना आधार के ही सरकारी योजनाओं का फायदा ले रहे हैं। 

तमिलनाडु में बिना आधार पीडीएस का फायदा सभी को मिलता है, जिसमें त्रुटि 10 प्रतिशत से भी कम है। इसी तरह ओडीशा और छत्तीसगढ़ ने भी मनरेगा मजदूरी भुगतान बिना आधार के ही खाते के जरिए त्रुटि रहित रूप से करने में सफलता पाई।

हां, आधार कार्ड व्यक्तिगत विशिष्ट पहचान यानी यूनिक आईडेंटिटी का वैज्ञानिक तरीका हो सकता है, होना भी चाहिए ताकि व्यक्ति की ऑनलाइन पहचान हो सके। इस हेतु स्पष्ट प्रावधान हों, सर्वसम्मत सहमति बने, कई पहचान पत्रों से मुक्ति मिले।

जहां पहचान के लिए इलेक्ट्रॉनिक पहचान तंत्र की सर्व सुलभ सुविधा हो, आधार नंबर बताएं और फौरन उसकी पुष्टि हो जाए। वहीं अपराधियों की पहचान होगी, दुर्घटना के शिकार या लावारिशों की शिनाख्त आसान होगी, क्योंकि विशिष्ट पहचान-पत्र में दर्ज बायोलॉजिकल डाटा ही पहचान उगलेगा। लेकिन यह पहचान तक ही सीमित हो तो ठीक है। 

यदि इसके जरिए निजी क्रिया-कलापों का प्रोफाइल बनाकर सार्वजनिक मंच से जोड़ा जाएगा तो निजता पर हमले की बात तो लगती है। यकीनन मामला जटिल है लेकिन सरल बनाने के लिए सरकारी पहल भी आसान प्रतीत नहीं होती है। ऐसा लग रहा है कि भारत में वो दिन अभी बहुत दूर है जब भारतीयों को विशिष्ट पहचान दिलाकर आधार, लगेगा खूब दमदार।

ऋतुपर्ण दवे

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